कुल्लू दशहरे में पशु बलि के खिलाफ बुलंद होने लगी आवाज़
शशिकांत/ट्रिब्यून न्यूज सर्विस
कुल्लू, 12 अक्तूबर। कुल्लू दशहरे के अंतिम दिन दी जाने वाली जीवों की बलि इलाके के लोगों को किसी अप्रत्याशित आपदा या खतरे से बचा पाती हो या नहीं लेकिन बदलते वक्त के साथ-साथ बलि चढऩे वाले इन जीवों को बचाने की मुहिम शुरू हो गई है। कहा जा रहा है कि अब जबकि दुनियाभर में जीव हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद हो रही है तो इस अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त दशहरा उत्सव में भी राजाओं के समय से चली आ रही इस प्रथा को या तो समाप्त कर देना चाहिए या फिर इसे प्रतीकात्मक बना देना चाहिए। दशहरा मेले की समाप्ति के दिन को कुल्लू में ‘लंका दहन’ के तौर पर मनाया जाता है। आज ही के दिन सदियों से कुल्लू में ब्यास नदी के किनारे राजवंश के लोगों की मौजूदगी में ये बलि दी जाती है। जिन जीवों को बलि चढ़ाया जाता है उनमें एक भैंसा, एक मेंढा, एक मुर्गा, एक मछली और एक केंकड़ा शामिल होते हैं। इन बलियों को मां हडिम्बा को अर्पित किया जाता है।
भैंसे का कटा हुआ सिर लेकर दशहरा मेले में आई हडिम्बा माता को चढ़ाया जाता है। इस सिर को एक व्यक्ति हाथों में पकड़कर जब भरे मेले से गुजरता हुआ हडिम्बा माता तक पहुंचता है तो देखने वाले सिहर उठते हैं। कुल्लू में बलि दिए जाने की यह परंपरा इतनी पुरानी है कि लोगों ने इसे एक तरह से अपना लिया है। लेकिन अब इसे समाप्त करने की मुहिम शुरू हो गई है। हालांकि बलि प्रथा के समर्थक यह तर्क देकर इसे जारी रखने की बात कहते हैं कि देश में पशुओं को काटने और उनका मांस खाने पर प्रतिबंध नहीं है इसलिए इसे बंद नहीं किया जा सकता। कुल्लू राजवंश के महेश्वर सिंह जो राज्य भाजपा के एक वरिष्ठï नेता भी हैं का कहना है कि बलि चढ़ाने की प्रथा बहुत पुरानी है और इसे रोकने का कोई औचित्य नहीं है। यह लोगों की आस्था से जुड़ा सवाल है। गौरतलब है कि कुछ साल पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं जानी-मानी पशु प्रेमी मेनका गांधी ने भी कुल्लू में दशहरा के उत्सव पर दी जाने वाली इन बलियों का विरोध किया था। उन्होंने बाकायदा महेश्वर सिंह को पत्र लिखकर कहा था कि इन बलियों को रोकें। लेकिन महेश्ïवर सिंह ने मेनका के इस पत्र के जवाब में भी बलियों को दैवीय परंपराओं से जोड़ते हुए जायज ठहराया था। महेश्वर सिंह का कहना है कि मेरे पत्र के जवाब में फिर कभी मुझे मेनका का पत्र नहीं आया। उधर, कुल्लू में भी ऐसे लोग हैं जो अब इस परंपरा को बंद कराना चाहते हैं। ऐसे ही लोगों में से एक हैं अखाड़ा बाजार में रहने वाले सत्यपाल शिक्षक रहे हैं और इस परंपरा को लेकर अत्यधिक आहत हैं। सत्यपाल कहते हैं कि बलि प्रथा को सभ्य समाज में नहीं स्वीकारा जा सकता। खासतौर पर सार्वजनिक तौर पर तो बलि बिल्कुल भी नहीं दी जानी चाहिए। यहां यह जानना भी रुचिकर है कि मंडी जिले के करसोग क्षेत्र में भी कामाक्षा मंदिर में हर साल सैकड़ों बलियां दी जाती थी लेकिन अब वहां इन्हें समाप्त कर दिया गया है और प्रतीकात्मक बलियों की प्रथा को शुरू किया गया है। कहा जा रहा है कि कामाक्षा मंदिर की तर्ज पर ही कुल्लू दशहरे में दी जाने वाली इन बलियों को भी अब रोक देना चाहिए।